1-असहयोग आंदोलन-
सितम्बर 1920 से फरवरी 1922 के बीच महात्मा गांधी तथा भारतीय राष्ट्रीय कॉन्ग्रेस के नेतृत्व में असहयोग आंदोलन चलाया गया, जिसने भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन को एक नई जागृति प्रदान की।
जलियांवाला बाग नर संहार सहित अनेक घटनाओं के बाद गांधी जी ने अनुभव किया कि ब्रिटिश हाथों में एक उचित न्याय मिलने की कोई संभावना नहीं है इसलिए उन्होंने ब्रिटिश सरकार से राष्ट्र के सहयोग को वापस लेने की योजना बनाई और इस प्रकार असहयोग आंदोलन की शुरूआत की गई और देश में प्रशासनिक व्यवस्था पर प्रभाव हुआ।
यह आंदोलन अत्यंत सफल रहा, क्योंकि इसे लाखों भारतीयों का प्रोत्साहन मिला। इस आंदोलन से ब्रिटिश प्राधिकारी हिल गए।

2-नागरिक अवज्ञा आंदोलन-
महात्मा गांधी ने नागरिक अवज्ञा आंदोलन का नेतृत्व किया, जिसकी शुरूआत दिसंबर 1929 में कांग्रेस के सत्र के दौरान की गई थी। इस अभियान का लक्ष्य ब्रिटिश सरकार के आदेशों की संपूर्ण अवज्ञा करना था। इस आंदोलन के दौरान यह निर्णय लिया गया कि भारत 26 जनवरी को पूरे देश में स्वतंत्रता दिवस मनाएगा।
अत: 26 जनवरी 1930 को पूरे देश में बैठकें आयोजित की गई और कांग्रेस ने तिरंगा लहराया। ब्रिटिश सरकार ने इस आंदोलन को दबाने की कोशिश की तथा इसके लिए लोगों को निर्दयतापूर्वक गोलियों से भून दिया गया, हजारों लोगों को मार डाला गया। गांधी जी और जवाहर लाल नेहरू के साथ कई हजार लोगों को गिरफ्तार किया गया।
परन्तु यह आंदोलन देश के चारों कोनों में फैल चुका था। इसके बाद ब्रिटिश सरकार द्वारा गोलमेज सम्मेलन आयोजित किया गया और गांधी जी ने द्वितीय गोलमेज सम्मेलन में लंदन में भाग लिया। परन्तु इस सम्मेलन का कोई नतीजा नहीं निकला और नागरिक अवज्ञा आंदोलन पुन: जीवित हो गया।
इस समय, विदेशी निरंकुश शासन के खिलाफ प्रदर्शन स्वरूप दिल्ली में सेंट्रल असेम्बली हॉल (अब लोकसभा) में बम फेंकने के आरोप में भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरू को गिरफ्तार किया गया था। 23 मार्च 1931 को उन्हें फांसी की सजा दे दी गई।

3-असहयोग आंदोलन के कारण-
गांधी ने 1916 के आसपास भारतीय राजनीतिक क्षेत्र में प्रवेश किया और शुरू में उनके आदर्शों को ब्रिटिश शासन की निष्पक्षता की ओर जोड़ दिया गया. राजनीतिक परिदृश्य में प्रवेश करने से पहले वह बिहार के चंपारण जिले के किसानों, गुजरात में खेड़ा जिले के किसानों और अहमदाबाद के कपड़ा श्रमिकों की उचित मजदूरी की मांग जैसे अर्ध-राजनीतिक कारणों में शामिल थे.

सरकार के प्रति उनकी सहानुभूति के रूप में उन्होंने प्रथम विश्व युद्ध में अंग्रेजी की ओर से लड़ने के लिए स्वयंसेवकों को सैनिकों के रूप में भर्ती करने की भी वकालत की. अन्य समकालीन राजनीतिक दिमागों की तरह उन्होंने यह मान लिया था कि युद्ध के बाद, भारत के लोग तेजी से स्व-शासन की ओर बढ़ेंगे.