1-पर्यावरण-
पर्यावरण 2 शब्दों से मिलकर बना है। परी+आवरण परी का अर्थ चारों और तथा आवरण का मतलब ढका हुआ। जो चारों ओर से ढका हुआ है। उसे पर्यावरण कहते हैं।
2-जैव विविधता-
जैव विविधता शब्द डब्ल्यू. जी. रोसेन द्वारा दिया गया है। यह जैवक संगठन के प्रत्येक स्तर पर उपस्थित विविधता को दर्शाता है। इसका अध्ययन तीन रूपों आनुवंशिक विविधता, जातीय विविधता, पारिस्थितिकीय विविधता में किया जाता है। परन्तु आजकल मानवीय क्रियाकलापों से जैव विविधता का नाश होता जा रहा है। प्राकृतिक आवासों का ह्रास, वनों की कटाई, शिकार, प्राकृतिक संसाधनों का दोहन औद्योगीकरण इसके प्रमुख कारण हैं।

3-हरित गृह प्रभाव और जलवायु परिवर्तन-
हरित गृह प्रभाव एक प्राकृतिक प्रक्रिया है जिसमे कुछ गैसें किसी गृह के ताप को बढ़ाने का काम करती हैं। कार्बन डाई ऑक्साइड को ग्रीन हाउस गैस कहा जाता है क्योकि ये विश्वव्यापी ताप बढ़ाने का काम करती है। इसके अतिरिक्त मेथेन और नाइट्रस ऑक्साइड भी ग्रीन हाउस गैसों में शामिल हैं।
4-ओजोन परत क्षरण-
ओजोन परत पृथ्वी के वायुमंडल के समताप मंडल में पायी जाती है। ये सूर्य से आने वाले पराबैगनी (UV) विकिरण को अवशोषित कर लेती है। इसलिए इसे जीवन रक्षक छतरी भी कहा जाता है। ओजोन परत की मोटाई डॉब्सन इकाई द्वारा मापी जाती है।
परन्तु वर्तमान में इसका क्षरण बहुत तेजी से हो रहा है जिसके लिए इसके संरक्षण की अति आवश्यकता है। इसके क्षरण के लिए प्रमुख कारक क्लोरीन है। क्लोरीन का एक अणु ओजोन के एक लाख अणुओं को नष्ट कर सकता है। ओजोन परत में छिद्र सर्वप्रथम सन् 1973 में फॉरमैन द्वारा अंटार्कटिका क्षेत्र में देखा गया।
5-वन एवं वन्य जीव –
वन हमारे पर्यावरण और जीवन के लिए बेहद आवश्यक हैं। वनों की रक्षा के लिए और पारिस्थितिकी तंत्र के लिए वन्य जीवों का होना अत्यंत आवश्यक है। इसके साथ ही वन किसी भी देश के लिए आर्थिक सम्पदा का भी प्रमुख स्त्रोत होते हैं।
संपूर्ण विश्व की लगभग 80% जैव विविधता विषुवतीय वनों में पायी जाती है। पारिस्थितिकी संतुलन के लिए देश के कुल भू-भाग के 33% भाग पर वनों का होना आवश्यक है। वहीं पहाड़ी क्षेत्रों में इसका दो तिहाई होना आवश्यक है ताकि मृदा अपरदन और भू-स्खलन से बचा जा सके।
6-प्रदूषण-
मानव क्रिया कलापों द्वारा पर्यावरण में डाले गए जैविक व रासायनिक कचरे को एन्थ्रोपोजेनिक कहा जाता है। इसके अतिरिक्त कोयला, पेट्रोल, डीजल व अन्य ईंधनों के दहन से निकलने वाले कार्बन व नाइट्रोजन के ऑक्साइड भी पर्यावरण को प्रदूषित करते हैं।
7-पारिस्थितिकी तंत्र की विशेषताएं
1. पारिस्थितिकी तंत्र एक कार्यशील क्षेत्रीय इकाई होता है, जो क्षेत्र विशेष के सभी जीवधारियों एवं उनके भौतिक पर्यावरण के सकल योग का प्रतिनिधित्व करता है।
2. इसकी संरचना तीन मूलभूत संघटकों से होती है- (क) ऊर्जा संघटक, (ख) जैविक (बायोम) संघटक, (ग) अजैविक या भौतिक (निवास्य) संघटक (स्थल, जल तथा वायु)।
3. पारिस्थितिकी तंत्र जीवमंडल में एक सुनिश्चित क्षेत्र धारण करता है।
4. किसी भी पारिस्थितिकी तंत्र का समय इकाई के संदर्भ में पर्यवेक्षण किया जाता है।
5. ऊर्जा, जैविक तथा भौतिक संघटकों के मध्य जटिल पारिस्थितिकी अनुक्रियाएं होती हैं, साथ-ही-साथ विभिन्न जीवधारियों में भी पारस्परिक क्रियाएं होती हैं।
6. पारिस्थितिकी तंत्र एक खुला तंत्र होता है, जिसमें ऊर्जा तथा पदार्थों का सतत् निवेश तथा उससे बहिर्गमन होता रहता है।
7. जब तक पारिस्थितिकी तंत्र के एक या अधिक नियंत्रक कारकों में अव्यवस्था नहीं होती, पारिस्थितिकी तंत्र अपेक्षाकृत स्थिर समस्थिति में होता है।
8. पारिस्थितिकी तंत्र प्राकृतिक संसाधन होते हैं (अर्थात् यह प्राकृतिक संसाधनों का प्रतिनिधित्व करता है)
9. पारिस्थितिकी तंत्र संरचित तथा सुसंगठित तंत्र होता है।
10. प्राकृतिक पारिस्थितिकी तंत्र में अंतर्निमित नियंत्रण की व्यवस्था होती है। अर्थात् यदि पारिस्थितिकी तंत्र के किसी एक संघटक में प्राकृतिक कारणों से कोई परिवर्तन होता है तो तंत्र के दूसरे संघटक में परिवर्तन द्वारा उसकी भरपाई हो जाती है, परंतु यह परिवर्तन यदि प्रौद्योगिकी मानव के आर्थिक क्रियाकलापों द्वारा इतना अधिक हो जाता है।
कि वह पारिस्थितिकी तंत्र के अंतर्निर्मित नियंत्रण की व्यवस्था की सहनशक्ति से अधिक होता है तो उक्त परिवर्तन की भरपाई नहीं हो पाती है और पारिस्थितिकी तंत्र अव्यवस्थित तथा असंतुलित हो जाता है एवं पर्यावरण अवनयन तथा प्रदूषण प्रारंभ हो जाता है।

8-पारिस्थितिकी तंत्र के प्रकार
1. निवास्य क्षेत्र के आधार पर वर्गीकरण – निवास्य क्षेत्र, जीव मंडल के खास क्षेत्रीय इकाई के भौतिक पर्यावरण की दशाएं, जैविक समुदायों की प्रकृति तथा विशेषताओं को निर्धारित करता है। चूंकि भौतिक दशाओं में क्षेत्रीय विभिन्नताएं होती हैं, अतः जैविक समुदायों में भी स्थानीय विभिन्नताएं होती हैं। इस अवधारणा के आधार पर पारिस्थितिकी तंत्रों को दो प्रमुख श्रेणियों में विभाजित किया जाता है-
(क) पार्थिव पारिस्थितिकी तंत्र – भौतिक दशाओं तथा उनके जैविक समुदायों पर प्रभाव के अनुसार पार्थिव या स्थलीय पारिस्थितिकी तंत्रों में विभिन्नताएं होती हैं। अतः पार्थिव पारिस्थितिकी तंत्रों को पुनः कई उपभागों में विभाजित किया जाता है यथा (अ) उच्चस्थलीय या पर्वत पारिस्थितिकी तंत्र (ब) निम्न स्थलीय पारिस्थितिकी तंत्र, (स) उष्ण रेगिस्तानी पारिस्थितिकी तंत्र तथा (द) शीत रेगिस्तानी पारिस्थितिकी तंत्र। विशिष्ट अध्ययन एवं निश्चित उद्देश्यों के आधार पर इस पारिस्थितिकी तंत्र को कई छोटे भागों में विभाजित किया जाता है।
(ख) जलीय पारिस्थितिकी तंत्र – जलीय पारिस्थितिकी तंत्र को दो प्रमुख उपभागों में विभाजित किया जाता है – (अ) ताजे जल वाले-ताजे जल वाले पारिस्थितिकी तंत्रों को पुनः कई भागों में विभाजित किया जाता है-सरिता पारिस्थितिक तंत्र, झील पारिस्थितिकी तंत्र, जलाशय पारिस्थितिकी तंत्र, दलदल पारिस्थितिकी तंत्र, आदि। (ब) सागरीय पारिस्थितिकी तंत्र-सागरीय पारिस्थितिकी तंत्रों को खुले सागरीय पारिस्थितिकी तंत्र, तटीय ज्वानद मुखी पारिस्थितिकी तंत्र, कोरलरिफ पारिस्थितिकी तंत्र आदि उप-प्रकारों में विभाजित किया जाता है। सागरीय पारिस्थितिकी तंत्रों को दूसरे रूप में भी विभाजित किया जा सकता है। यथा-सागरीय पारिस्थितिकी तंत्र तथा सागर-नितल पारिस्थितिकी तंत्र।
2. क्षेत्रीय मापक के आधार पर वर्गीकरण- क्षेत्रीय मापक या विस्तार के आधार पर विभिन्न उद्देश्यों के लिए पारिस्थितिकी तंत्रों को अनेक प्रकारों में विभाजित किया जाता है। समस्त जीवमंडल वृहत्तम पारिस्थितिकी तंत्र होता है। इसे दो प्रमुख प्रकारों में विभाजित किया जाता है – (अ) महाद्वीपीय पारिस्थितिकी तंत्र, (ब) महासागरीय या सागरीय पारिस्थिकी-तंत्र। आवश्यकता के अनुसार क्षेत्रीय मापक को घटाकर एकाकी जीव (पादप या जंतु) तक लाया जा सकता है। उदाहरण के लिए जीवमंडलीय पारिस्थितिकी तंत्र, महाद्वीपीय पारिस्थितिकी तंत्र, पर्वत, पठार, मैदान पारिस्थितिकी तंत्र, सरिता, झील, जलाशय पारिस्थितिकी तंत्र, फसल क्षेत्र पारिस्थितिकी तंत्र, गोशाला पारिस्थितिक तंत्र, एकाकी पादप पारिस्थितिकी तंत्र, पेड़ की जड़ या ऊपरी वितान का पारिस्थितिकी तंत्र।
3. उपयोग के आधार पर वर्गीकरण- विभिन्न उपयोगों के आधार पर पारिस्थितिकी तंत्रों को कई प्रकारों में विभाजित किया जा सकता है। उदाहरण के लिए ई.पी. ओड्म (1959) ने नेट प्राथमिक उत्पादन तथा कृषि विधियों के उपयोग के आधार पर पारिस्थितिकी तंत्रों को दो प्रमुख श्रेणियों में विभाजित किया है-
(अ) कृषित पारिस्थितिकी तंत्र- कृषित पारिस्थितिकी तंत्रों को प्रमुख फसलों के आधार पर कई उप-प्रकारों में किया जा सकता है। यथा-गेहूं क्षेत्र पारिस्थितिकी-तंत्र, चारा क्षेत्र पारिस्थितिकी तंत्र आदि।
(ब) अकृषित पारिस्थितिकी तंत्र- अकृषित पारिस्थितिकी तंत्रों को वन पारिस्थितिकी तंत्र, ऊंची, घास पारिस्थितिक तंत्र, बंजर-भूमि पारिस्थितिकी तंत्र, दलदल क्षेत्र पारिस्थितिकी तंत्र आदि।
9-मुख्य प्रदूषण-
वायु प्रदूषण-
कल कारखानों का धुआं, ईंधन का धुआं, वाहनों का धुआं, धूल के कण और जलवाष्प आदि वायुमंडल में एकत्रित हो जाते हैं, जिससे वायु की गुणवत्ता नष्ट हो जाती है। उसे ही वायु प्रदूषण या प्रदूषित वायु कहा जाता है।
वायु प्रदूषण के कारण-
1. धुआं – घरेलू ईंधन से धुआं, कारखानों से निकलने वाला धुआं, कचरा जलाने से धुआं, वाहनों से निकलता धुआं। इस धुएं में हाइड्रोकार्बन, कार्बन के कण, कार्बन डाइऑक्साइड, कार्बन मोनोऑक्साइड, नाइट्रोजन के ऑक्साइड आदि उपस्थित रहते हैं। ये सभी कण मानव के स्वास्थ्य पर बुरा प्रभाव डालते हैं। पेड़ों की पत्तियों और शाखाओं में जमकर उन्हें भी क्षतिग्रस्त करते हैं।
2. स्वचालित वाहन- ट्रैक्टर, ट्रक, कार, स्कूटर, टैंपों, बस आदि वाहनों में डीजल या पेट्रोल के जलने से विषैली गैस निकलकर वातावरण को प्रदूषित करती है। चलती हुई वाहन की अपेक्षा चालू वाहन में खड़े वाहन से निकलता धुआं ज्यादा खतरनाक होता है, क्योंकि इस धुएं में प्रदूषक की सांद्रता होती है।
3. औद्योगीकरण- बढ़ती हुई जनसंख्या ने गरीबी को और गरीबी ने प्रदूषण को जन्म दिया है। बढ़ती हुई जनसंख्या ने विकास के नाम पर औद्योगीकरण को भी जन्म दिया है। कारखानों की चिमनियों से निकलने वाले धुएं में पारा, जिंक, सीसा, आर्सेनिक जैसे धातुओं के सूक्ष्म कण होते हैं, इसके अलावा प्रदूषक गैस भी होती है।
4. कृषि क्षेत्र- फसल को कीटों के आक्रमण से बचाने तथा अधिक उत्पादन के लिए किसान खेतों में विभिन्न प्रकार के रासायनिक उर्वरक और कीटनाशकों का प्रयोग करते हैं। ये रासायनिक पदार्थ जल में घुलकर भूमि को तथा नदी-नालों में जल को प्रदूषित करते हैं।
5. खरपतवार- गाजर घास और कुछ खरपतवारों के परागकण वायुमंडल में बिखरकर प्रदूषक का कार्य करते हैं। इससे दमा की बीमारी होती है। महानीम वृक्ष के पुष्पों के परागकण भी प्रदूषण फैलाते हैं।
वायु प्रदूषण के प्रभाव
वायु प्रदूषण का प्रभाव न केवल जैविक घटकों पर, अपितु इमारतों, पर, कपड़ों एवं धातुओं पर भी पड़ता है। मानव में श्वास तथा त्वचा संबंधी रोग तो होते ही हैं, शरीर से हिस्टामाइन रसायन का त्वचा के माध्यम से रिसाव होने लगता है। पत्तियों का पीला पड़ जाना, जल जाना, चकत्ते पड़ जाना, कलियों का बिना खिले ही सूख जाना, फलों का धब्बेदार हो जाना, पशुओं का चारा विषाक्त हो जाना, यह सब वायु प्रदूषण का ही प्रभाव है।