भारतीय कृषि की प्रमुख समस्याओं को तीन भागों में बाँट सकते हैं-
(अ) सामान्य कारण,
(ब) संस्थागत कारण,
(स) प्राविधिक कारण।
(अ) सामान्य कारण
1. भूमि पर जनसंख्या का भार–भारत में कृषि-भूमि पर जनसंख्या का भार निरन्तर बढ़ता जा रहा है, परिणामत प्रति व्यक्ति कृषि योग्य भूमि की उपलब्धि निरन्तर कम होती जा रही है। सन् 1901 ई० में जहाँ कृषि योग्य भूमि की उपलब्धि प्रति व्यक्ति 2.1 एकड़ थी, आज वह 0.7 एकड़ से भी कम रह गई है।
2. कुशल मानव-शक्ति का अभाव-भारत का कृषक सामान्यतया निर्धन, निरक्षर एवं भाग्यवादी होता है। अत वह स्वभावत अधिक उत्पादन नहीं कर पाता।
3. भूमि पर लगातार कृषि-अनगिनत वर्षों से हमारे यहाँ उसी भूमि पर खेती की जा रही है, फलतः खेती की उर्वरा-शक्ति निरन्तर कम होती जा रही है।उर्वरा-शक्ति पुन प्राप्त करने के लिए सामान्यतः न तो हेर-फेर की प्रणाली का ही प्रयोग किया जाता है और न रासायनिक खादों का ही प्रयोग होता है।
(ब) संस्थागत कारण
1. खेतों का लघु आकार-उपविभाजन एवं अपखण्डन के। परिणामस्वरूप देश में खेतों का आकार अत्यन्त छोटा हो गया है, परिणामतन आधुनिक उपकरणों का प्रयोग नहीं हो पाता और श्रम व पूँजी के साथ ही समय का भी अपव्यय होता है।
2. अल्प-मात्रा में भूमि सुधार-देश में भूमि सुधार की दिशा में अभी महत्त्वपूर्ण एवं आवश्यक प्रगति नहीं हुई है, जिसके फलस्वरूप कृषकों को न्याय प्राप्त नहीं होता। इसका उत्पादन पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ताहै।
3. कृषि-सेवाओं का अभाव-भारत में कृषि-सेवाएं प्रदान करने वाली संस्थाओं का अभाव पायााा जाता है, इससे उत्पादकता में वृद्धि नहींं हो पाती।
(स) प्राविधिक कारण।
1. परंपरागत विधियां-भारतीय किसान अपने परंपरावादी दृष्टिकोण एवं दरिद्रता के कारण पुरानी और अकुशल विधियां का ही प्रयोग करतेे हैं। जिससे उत्पादन वृद्धि नहीं हो पाती।
2. उर्वरकों की कमी-उत्पादन में वृद्धि के लिए उर्वरकों का प्रयोग अत्यंत आवश्यक है। परंंतु भारत मैं गोबर एवं आधुनिक रासायनिक खादों दोनोंं का ही प्रभाव पाया जाता है। गत वर्षो में इस दिशा में कुछ प्रगति अवश्यय हुई है।
3. पशुओं की हीन दशा-भारत में पशुओं का अभाव तो नहीं है। उनकी अच्छी नस्ल अवश्य नहीं पाई जाती है। अन्य शब्दों मे पशु धन की गुणात्मक संतोषजनक नहीं है। अतः पशु आर्थििक सहयोग देने पर कृषकों पर भार बन गए हैं।