हेलो दोस्तों कैसे हो मैंने आपको पाठ- संसाधन एवं विकास के पार्ट-1 व पार्ट -2 में मृदा(Soil) के बारे में बताया आज मैं और कुछ मृदाओं के बारे में विस्तार से जानकारी आपको दूंगा अगर आपने अभी तक हमारे पार्ट वन(Part 1) व पार्ट 2(Part 2) पढ़े नहीं है तो नीचे दिए गए लिंक के दुआर पड़ सकते है
मरुस्थली Soil
मरुस्थली(Desert) मृदाओं का रंग लाल और भुरा होता है। ये मृदाएं(Soil) आमतौर पर रेतीली और लवणीय होती है। कुछ क्षेत्रों में नमक(Salt) की मात्रा इतनी अधिक है कि झीलों से जल वाष्पीकृत करके खाने(Food) का नमक भी बनाया जाता है। शुष्क जलवायु और उच्च टेंपरेचर (Temperature) के कारण जलवाष्प दर अधिक है और मृदा में हार्मस और नमी की मात्रा कम होती है मृदा की तरह के नीचे कैल्शियम(Ca) की मात्रा बढ़ती चली जाती है
और नीचे की परतों में चूने के कंकर की सतह पाई जाती है। इसके कारण मृदा में जल अंतः स्पंदन (Infiltration) अवरुद्ध हो जाता है। इस मृदा को सही तरीके से सिंचित करके फार्मिंग(Farming) योग्य बनाया जा सकता है। जैसा कि पश्चिमी राजस्थान(Rajasthan) में हो रहा है।
वन मृदा
ये मृदाएं आमतौर पर पहाड़ी और पर्वतीय एरिया(Area) में पाई जाती है जहां पर्याप्त वर्षा वन उपलब्ध है इन मृदाओं के गठन में पर्वतीय पर्यावरण के अनुसार बदलाव आता है। नदी घाटियों में ये मृदाएं(Soil) दोमट और शिल्टदार होती है परंतु ऊपरी ढालो पर इनका गठन मोटे कड़ो का होता है। हिमालय के हिमाच्छादित क्षेत्रों में इन मृदाओं का बहुत अपरदन होता है और ये अधिसिलिक (Acidic) तथा हर्मस होती है। नदी घाटियों के निचले क्षेत्रों, विशेषकर नदी सोपान और जलोढ़ पंखों, आदि में ये मृदाएं उपजाऊ होती है।
मृदा अपरदन और संरक्षण
मृदा(Soil) के कटाव और उसके बढ़ाओ की प्रक्रिया को मृदा अपरदन कहा जाता है। मृदा के बनने में अपरदन(Soil) की क्रिया आमतोर पर साथ साथ चलती है और दोनों में संतुलन होता है। परंतु मानवीय क्रियाओं जैसे वनोन्मूलन अति पशुचारण, निर्माण और खनन(Mining) इत्यादि से कई बार यह संतुलन भंग हो जाता है तथा प्राकृतिक तत्व जैसे पवन, हिमनदी और जल मृदा(Soil) अपरदन करते हैं।
मृदा क्षेत्र
बहता जल मृतिकायुक्त मृदाओ को काटते हुए गहरी वाहिकाएं बनाता है, जिन्हें अवनालिकाए कहते हैं। जैसे भूमि जोतने योग्य नहीं रहती और इसे उत्खात भूमि (Bad land) कहते हैं। चंबल बेसिन में ऐसी भूमि को खड़ (Ravine) भूमि कहा जाता है। कई बार जल विस्तृत क्षेत्र को ढके हुए ढाल के साथ नीचे की ओर बहता है। ऐसी स्थिति में इस एरिया(Area) की ऊपरी मृदा(Soil) घुलकर जल के साथ बह(Flow) जाती है।
इसे चादर अपरदन (Sheet erosion) कहा जाता है। पवन द्वारा मैदान अथवा धालू क्षेत्र से मृदा को उड़ा ले जाने की प्रक्रिया को पवन अपरदन कहा जाता है। कृषि के गलत तरीकों से भी मृदा अपरदन होता है। गलत ढंग से हल चलाने जैसे ढाल पर ऊपर से नीचे की ओर हल चलाने से वाहीकाए बन जाती है, जिसके अंदर से बहता पानी आसानी से मृदा(Soil) का कटाव करता है। ढाल वाली भूमि पर समोच्च रेखाओं के समानांतर हल चलाने से ढाल के साथ जल(water) बहाव की गति घटती है। इसे समोच्च जुताई (Contour Ploughing) कहा जाता है।
ढाल वाली भूमि पर सोपान(Step) बनाए जा सकते हैं। सोपान कृषि अपरदन को नियंत्रित(Control) करती है। पश्चिमी और मध्य हिमालय में सोपान अथवा सीढ़ीदार फार्मिंग (Farming) काफी विकसित है। बड़े खेतों को पट्टियों में बांटा जाता है। फसलों के बीच में घास(Grass) की पट्टियां उगाई जाती है। ये पवनों द्वारा जनित बल को कमजोर करती है। इस तरीकों को पट्टी कृषि (Strip Farming) कहते हैं। पेड़ों को कतारों में लगाकर रक्षक (Shelter belt) मेखला बनाना भी पवनों की गति कम करता है। इन रक्षक पट्टियों का पश्चिमी भारत में रेत के टीलों के स्थायीकरण में इंपोर्टेंट (Important) योगदान रहा है।
भारत के पर्यावरण की दशा
1.सुखोमाजरी गांव और झाबुआ जिले ने यह कर दिखाया है कि भूमि निम्नीकरण प्रक्रिया को पलटा जा सकता है। सुखोमाजरी में वृक्ष घनत्व 1976 में 13% हेक्टेयर था जो कि 1992 में बढ़कर 1272 प्रति हेक्टेयर हो गया है।
2.पर्यावरण के पुनर्जनन से अधिक संसाधन उपलब्धता, कृषि और पशुपालन में सुधार के परिणामस्वरूप आमदनी बढ़ती है और समाज में आर्थिक समृद्धि आती है सुखोमाजरी में 1979 से 1984 के बीच परिवारो की औसत वार्षिक आमदनी 10,000 से 15,000 रुपय थी।
3.पर्यावरण की पुनर्स्थापना के लिए लोगों द्वारा इसका प्रबंधन आवश्यक है। के मध्य प्रदेश सरकार ने लोगों को स्वयं फैसला लेने का अधिकार दिया है और वे प्रदेश की 29 लाख हेक्टेयर भूमि भारत का लगभग 1% एरिया(Area) को जल विभाजन प्रबंधन द्वारा हरा-भरा बना रहे हैं।