पारिस्थितिक तन्त्र का मुख्य कार्य पर्यावरण सन्तुलन को बनाए रखना है। पर्यावरण सन्तुलन से ही इसके जैव संघटक अपना जीवन - चक्र पूरा करते हैं। निवेश और उत्पादन में सन्तुलन बनाए रखने के लिए जैव संघटक विविध ढंग से इस कार्य - प्रणाली में लगे रहते हैं। पारिस्थितिक तन्त्र की कार्य - प्रणाली की दृष्टि से इसके संघटकों को निम्नलिखित चार मुख्य वर्गों में विभक्त किया जा सकता है।
पारिस्थितिक तंत्र की कार्यप्रणाली
- भौतिक या अजैव तत्त्व - मिट्टी, ताप, सूर्य - प्रकाश, आर्द्रता , धरातल , खनिज आदि के संयोग से प्राकृतिक पर्यावरणीय आवास्य क्षेत्र की रचना होती है। इसी आवास्य क्षेत्र में पारिस्थितिक तन्त्र का कार्य सम्पन्न होता है। अत : पारिस्थितिक तन्त्र की कार्य - प्रणाली में प्रथम सोपान पर्यावरण का भौतिक आवास्य क्षेत्र है जहाँ तन्त्र की कार्य - प्रणाली को अनुकूल एवं आवश्यक परिस्थिति प्राप्त होती है।
- उत्पादक - पर्यावरणीय आवास्य में ही उत्पादक अर्थात् स्वपोषित पादप सूर्य प्रकाश को ग्रहण कर रासायनिक ऊर्जा द्वारा मिट्टी से आवश्यक खनिजों को प्राप्त कर अपनी वृद्धि और अपने विभिन्न अंगों का विकास करते हैं। पारिस्थितिक तन्त्र की कार्य - प्रणाली का यह दूसरा सोपान सूर्य द्वारा विकिरित ऊर्जा पर निर्भर है। पेड़ - पौधे हरी पत्तियों में उपस्थित क्लोरोफिल की सहायता से प्रकाश संश्लेषण क्रिया द्वारा अपने लिए भोजन की व्यवस्था करते हैं। प्रकृति को इस व्यवस्था से विभिन्न जीवधारियों के लिए खाद्य श्रृंखला विकसित होती है। वास्तव में ये उत्पादक ही अन्य सभी जीवों के लिए भोजन का आधार प्रस्तुत करते है।
- उपभोक्ता - पारिस्थितिक तन्त्र की कार्य - प्रणाली में उपभोक्ताओं की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। मानव सहित सभी जीव - जन्तु उपभोक्ताओं के अन्तर्गत सम्मिलित हैं । सभी प्रकार के उपभोक्ता उत्पादकों द्वारा ही भोजन के रूप में ऊर्जा ग्रहण करते हैं। भोज्य तत्त्वों का उपयोग करके अन्य उपभोक्ताओं के लिए आहार की व्यवस्था करते हैं। इसी कुछ उपभोक्ता कारण इन्हें द्वितीय स्तर का उत्पादक भी कहा जाता है। पारिस्थितिक आहार श्रृंखला इस तथ्य को स्पष्ट करती है ; जैसे बकरी घास खाकर स्वयं दूध और मांस तैयार करती है जिसे अन्य जीव भोजन के रूप में ग्रहण करते हैं।
- अपघटक - ऐसे सूक्ष्म जीव, जो मृत पादप एवं प्राणियों तथा अन्य पदार्थों को वियोजित करके अपना भोजन जुटाते हैं , अपघटक या वियोजक कहलाते हैं। मिट्टी में व्याप्त बैक्टीरिया इसके प्रमुख उदाहरण हैं। ये अन्य जीवों के लिए कार्बनिक तत्त्व उत्पन्न करते हैं। इसीलिए इनको द्वितीय स्तर के उत्पादक भी कहा गया है।