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पाठ 1- सूरदास- सूरदास का जीवन परिचय व सूरदास के महत्वपूर्ण पद

पाठ 1- सूरदास- सूरदास का जीवन परिचय व सूरदास के महत्वपूर्ण पद

हेलो, दोस्तों आज की इस पोस्ट के माध्यम से, मैं आपको सूरदास का जीवन परिचय के बारे में जानकारी देने वाला हूँ, यदि आप जानकारी पाना चाहते हो तो पोस्ट को पूरा पढ़कर जानकारी प्राप्त कर सकते हो।

सूरदास का जीवन परिचय

सूरदास जी का जन्म सन् 1478 ई० में हुआ था, इनके पिता जी का नाम पं० रामदास सारस्वत् था। जोकि एक गायक थे, और इनकी माता जी का नाम जमुनादास था।

इनके गुरू का नाम वल्लभाचार्य जी था। सूरदास जी के जन्म स्थान के बारे में कुछ लोगों का मतभेद हैं। कुछ लोग यह बता रहें हैं कि इनका जन्म ‘रूनकता’ नामक गाँव में हूआ था।

जोकि यह गाँव मथुरा और आगरा मार्ग के पास में स्थित है। लेकिन कुछ लोग कहते हैं, कि इनका जन्म ‘सीही’ नामक गाँव में एक गरीब परिवार में हुआ था।

कुछ वर्षों के बाद यह आगरा से आगे गऊघाट आकर रहने लगे थे। और यह बताया जाता है, कि सूरदास जी जन्म से ही अंधे थे। इसके बाद इनकी भेंट वल्लभाचार्य जी से इसी गऊघाट पर हुई थी।

और यह वल्लभाचार्य जी के शिष्य बन गए।और यहीं पर इन्होंने शिक्षा-दीक्षा ग्रहण की। यह अपने गुरू के कहने पर कृष्णलीला के पद गाने लगे थे।

इसके बाद इन्होंने सूरसागर, सूरसारावली तथा साहित्य-लहरी आदि अन्य रचनाएं लिखीं। और यह अपना जीवनयापन करते हूए। इनकी मृत्यु सन् 1583 ई० में ‘पारसौली’ नामक गाँव में हुई थी।

सूरदास के महत्वपूर्ण पद

(1) मैया में नाही दधि खायों

ख्याल(khyal) परे ये सखा सबै मिलि, मेरे मुख लपटायो।

देखि(Dekhi) तुहि सिके पर भाजन, ऊचे धर लटकायो।।

तुहि निरखी नान्हे कर अपने, मै केसे करि पायो।।

मुख दधि पोंछी कहत नंदनन्दन, दोना पीठ दुरायो।

डारी शूट मुस्काए तबही, गति सुत को कंठ लगायो।।

बालविनोद मोद मन मोहो, भक्ति प्रताप दिखायो।

सूरदास प्रभु जसुमती के सुख, शिव विरचि बोरायो।।

संदर्भ– प्रस्तुत पद हमारी पाठ्यपुस्तक के ‘वात्सल्य और स्नेह’ पाठ के सुर के ‘बालकृष्ण‘ शीर्षक शीर्षक से लिया गया है इसके कवि सूरदास है।

प्रसंग– जब श्री कृष्ण की शिकायत मां यशोदा से कर दी जाती है तो वह सफाई देते हैं, कि मैंने दही नहीं खाया है वह मां को समझाते हैं।

व्याख्या- श्री कृष्ण कहते हैं कि हे मां मैंने दही नहीं खाया है, मुझे याद आया कि इन सभी सखाओं ने मिलकर मेरे मुंह पर दही लपेट दिया है, तर्क देते हुए पूछते हैं कि तुम देखो यह दही का बर्तन छिके पर ऊंचा रखकर लटका दिया गया है।

वहां से मैं इन छोटे छोटे हाथों से किस तरह दही प्राप्त कर सकता हूं, यह कहते हुए नंद के पुत्र बालक कृष्ण दही के दोने को पीठ के पीछे छुपा लेते हैं।

बच्चे के ऐसे वचन सुनकर मां यशोदा अपने हाथ की डंडी को फेक देती है। और मुस्कुराते हुए श्रीकृष्ण को पकड़कर अपने गले से लगा लेती हैं।

बच्चे श्री कृष्ण की मनोरंजक क्रियाएं प्रसन्नता से मन को मोह लेती है। उनकी भक्ति का प्रभाव स्पष्ट दिखाई देता है सूरदास कहते हैं कि भगवान कृष्ण की मां यशोदा के इस आनंद के समक्ष शिवजी तथा ब्रह्माजी जी भी उन्मत्त है।

काव्य-सौंदर्य– (1) चतुर श्री कृष्ण की बालोचित क्रियाओं का सटीक अंकन हुआ है। (2) बाल चातुर्य के समक्ष मां की ममता का स्त्रोत फूट पड़ता है (3) साहित्यिक ब्रजभाषा का प्रयोग हुआ है (4)अनुप्रास अलंकार (5)वात्सल्य रस (5) छंद पद।

(2मैया कबहि बढ़ेगी चोटी

किती बेर मोहि दूध पियत भइ, यह अजहूँ है छोटी।।

तू जो कहती बल बेनी, ज्यो है है लॉबी मोटी। काड़त

गुहत न्नहवावत ओछत, नागिनी सी भूई लोटी।।


काचो दूध पिआवत पचि-पचि, देत न माखन रोटी।


काचो दूध पिआवत पचि-पचि, देत न माखन रोटी।

सूर श्याम चिरजीवौ दोऊ भैया, हरि हलधर की जोटी।।

संदर्भ– प्रस्तुत पद हमारी पाठ्यपुस्तक के ‘वात्सल्य और स्नेह’ पाठ के सुर के ‘बालकृष्ण‘ शीर्षक शीर्षक से लिया गया है इसके कवि सूरदास है।

प्रसंग– यहां बालक श्रीकृष्ण मां यशोदा को उपालंभ देते हुए अपनी चोटी के बड़े ना होने की शिकायत करते हैं।

व्याख्या– बालक श्रीकृष्ण पूछते हैं कि हे माता। मेरी चोटी कब बड़ी होगी। मुझे दूध पीते पीते कितना ही समय हो गया है पर यह आज भी छोटी ही बनी हुई है।

तुम जब भी दूध पिलाती हो तो कहती हो कि मैं दूध पी लूंगा तो मेरी चोटी बलदाऊ की चोटी के समान लंबी और मोटी हो जाएगी।

नियमित रूप से काढ़ने, गुहने, स्नान कराने एवं पोोंछने पर भी यह नागिन की तरह धरती पर लौट रही है, अर्थात यह पतली ही है।

कृष्ण कहते हैं कि तुम बार-बार प्रयासपूर्वक कच्चा दूध पिलाती रहती हो।

मुझे मक्खन और रोटी नहीं देती हो सूरदास कामना करते हैं, कि श्री कृष्ण और बलदाऊ दोनों भाइयों की जोड़ी चिरकाल तक जीवित रहे।

काव्य-सौंदर्य– (1)बाल स्वभाव का स्वामी कंकण हुआ है (2)शुद्ध साहित्यिक ब्रजभाषा का प्रयोग किया गया है (3)पुनरुक्तिप्रकाश, उपमा, अनुप्रास, अलंकारों की छटा अवलोकनीय है (4)वात्सल्य रस (5)छंद पद।

सूरदास पाठ के कुछ प्रश्न और उत्तर

प्रश्न 1- गोपियों द्वारा उद्धव को भाग्यवान कहने में क्या व्यंग निहित है।

उत्तर- गोपियों को पता है कि उद्धव कृष्ण से बहुत प्यार करते हैं गोपियां उद्धव से इसलिए जलती है कि उद्धव कृष्ण के बहुत पास रहते हैं। कृष्ण के पास रहते हुए उद्धव को वह विदाई की पीड़ा नहीं सहनी पड़ती जो गोपियों को सहनी पड़ती है। इसलिए गोपियों को उद्धव को भाग्यवान कहने में व्यंग निहित है

(2) उद्धव के व्यवहार की तुलना किस किस से की गई है

  • उत्तर – गोपियों ने उद्धव की तुलना कमल के पत्ते से की है। जो नदी के पानी में रहते हुए भी नदी में तैरता रहता है। अर्थात कमल जल में रहते हुए भी नदी का प्रभाव उस पर नहीं पड़ता है।
  • गोपियों ने उद्धव की तुलना जल के बीच में रखे तेल की मटकी के साथ भी की है जो बीच में रहते हुए भी मटकी पर एक बूंद भी पानी नहीं रहता है

प्रश्न 2- गोपियों ने किन-किन बातों से उद्धव को उलहाने दिए है

उत्तर- गोपियों ने उद्धव को कमल के पत्ते, तेल की मटकी और प्यार की नदी के उदाहरणों के माध्यम से उद्धव को उलाहने दिए हैं । गोपियों का कहना है कि वे कृष्ण के पास रहते हुए भी प्रेम कि नदी में उतरे ही नहीं है, अर्थात साक्षात प्रेमरूपी श्रीकृष्ण के पास रहकर भी वे उनके प्यार से वंचित हैं।

प्रश्न 3 – उद्धव द्वारा दिए गए योग के संदेश में गोपियों की वीरांगना में घी का काम कैसे किया?

उत्तर – गोपियाँ कृष्ण के जाने के बाद विरह की अग्नि में जल रही हैं। वे कृष्ण के आने का इंतजार कर रही थीं कि उनके बदले में उद्धव आ गए। उद्धव उनके पास अपने मन पर नियंत्रण रखने की सलाह लेकर पहुँचे हैं। कृष्ण के बदले में उद्धव का आना और उनके द्वारा मन पर नियंत्रण रखने की बात ने गोपियों की विरहाग्नि में घी का काम किया है।

प्रश्न 4- मरजादा न लही के माध्यम से कोण सी मर्यादा ना रहने की बात की जा रहीं है

उत्तर – ‘मरजादा न लही’ के माध्यम से प्रेम की मर्यादा न रहने की बात की जा रही है। कृष्ण के मथुरा चले जाने पर गोपियाँ उनके वियोग में जल रही थीं। कृष्ण के आने पर ही उनकी विरह-वेदना मिट सकती थी, परन्तु कृष्ण ने स्वयं न आकर उद्धव को यह संदेश देकर भेज दिया की गोपियाँ कृष्ण का प्रेम भूलकर योग-साधना में लग जाएँ । प्रेम के बदले प्रेम का प्रतिदान ही प्रेम की मर्यादा है, लेकिन कृष्ण ने गोपियों की प्रेम रस के उत्तर मैं योग की शुष्क धारा भेज दी । इस प्रकार कृष्ण ने प्रेम की मर्यादा नहीं रखी । वापस लौटने का वचन देकर भी वे गोपियों से मिलने नहीं आए ।

6. कृष्ण के प्रति अपने अनन्य प्रेम को गोपियों ने किस प्रकार अभिव्यक्त किया है ?  

उत्तर 


गोपियों ने कृष्ण के प्रति अपने अनन्य प्रेम को हारिल पक्षी के उदाहरण के माध्यम से अभिव्यक्त किया है। वे अपनों को हारिल पक्षी व श्रीकृष्ण को लकड़ी की भाँति बताया है। जिस प्रकार हारिल पक्षी सदैव अपने पंजे में कोई लकड़ी अथवा तिनका पकड़े रहता है, उसे किसी भी दशा में नहीं छोड़ता। उसी प्रकार गोपियों ने भी मन, कर्म और वचन से कृष्ण को अपने ह्रदय में दृढ़तापूर्वक बसा लिया है। वे जागते, सोते स्वप्नावस्था में, दिन-रात कृष्ण-कृष्ण की ही रट लगाती रहती हैं। साथ ही गोपियों ने अपनी तुलना उन चीटियों के साथ की है जो गुड़ (श्रीकृष्ण भक्ति) पर आसक्त होकर उससे चिपट जाती है और फिर स्वयं को छुड़ा न पाने के कारण वहीं प्राण त्याग देती है।

7.  गोपियों ने उद्धव से योग की शिक्षा कैसे लोगों को देने की बात कही है ?

उत्तर

गोपियों ने उद्धव से योग की शिक्षा ऐसे लोगों को देने की बात कही है जिनका मन चंचल है और इधर-उधर भटकता है। उद्धव अपने योग के संदेश में मन की एकाग्रता का उपदेश देतें हैं, परन्तु गोपियों का मन तो कृष्ण के अनन्य प्रेम में पहले से ही एकाग्र है। इस प्रकार योग-साधना का उपदेश उनके लिए निरर्थक है। योग की आवश्यकता तो उन्हें है जिनका मन स्थिर नहीं हो पाता, इसीलिये गोपियाँ चंचल मन वाले लोगों को योग का उपदेश देने की बात कहती हैं।

8. प्रस्तुत पदों के आधार पर गोपियों का योग-साधना के प्रति दृष्टिकोण स्पष्ट करें।

उत्तर

प्रस्तुत पदों में योग साधना के ज्ञान को निरर्थक बताया गया है। यह ज्ञान गोपियों के अनुसार अव्यवाहरिक और अनुपयुक्त है। उनके अनुसार यह ज्ञान उनके लिए कड़वी ककड़ी के समान है जिसे निगलना बड़ा ही मुश्किल है। सूरदास जी गोपियों के माध्यम से आगे कहते हैं कि ये एक बीमारी है। वो भी ऐसा रोग जिसके बारे में तो उन्होंने पहले कभी न सुना है और न देखा है। इसलिए उन्हें इस ज्ञान की आवश्यकता नहीं है। उन्हें योग का आश्रय तभी लेना पड़ेगा जब उनका चित्त एकाग्र नहीं होगा। परन्तु कृष्णमय होकर यह योग शिक्षा तो उनके लिए अनुपयोगी है। उनके अनुसार कृष्ण के प्रति एकाग्र भाव से भक्ति करने वाले को योग की ज़रूरत नहीं होती।


9. गोपियों के अनुसार राजा का धर्म क्या होना चाहिए ?

उत्तर

गोपियों के अनुसार राजा का धर्म उनकी प्रजा की हर तरह से रक्षा करना तथा नीति से राजधर्म का पालन करना होता है। एक राजा तभी अच्छा कहलाता है जब वह अनीती का साथ न देकर नीती का साथ दे।

10. गोपियों को कृष्ण में ऐसे कौन सा परिवर्तन दिखाई दिए जिनके कारण वे अपना मन वापस पा लेने की बात कहती हैं ?

उत्तर

गोपियों को लगता है कि कृष्ण ने अब राजनीति सिख ली है। उनकी बुद्धि पहले से भी अधिक चतुर हो गयी है। पहले वे प्रेम का बदला प्रेम से चुकाते थे, परंतु अब प्रेम की मर्यादा भूलकर योग का संदेश देने लगे हैं। कृष्ण पहले दूसरों के कल्याण के लिए समर्पित रहते थे, परंतु अब अपना भला ही देख रहे हैं। उन्होंने पहले दूसरों के अन्याय से लोगों को मुक्ति दिलाई है, परंतु अब नहीं। श्रीकृष्ण गोपियों से मिलने के बजाय योग के शिक्षा देने के लिए उद्धव को भेज दिए हैं। श्रीकृष्ण के इस कदम से गोपियों के मन और भी आहत हुआ है। कृष्ण में आये इन्ही परिवर्तनों को देखकर गोपियाँ अपनों को श्रीकृष्ण के अनुराग से वापस लेना चाहती है।

11. गोपियों ने अपने वाक्चातुर्य के आधार पर ज्ञानी उद्धव को परास्त कर दिया, उनके वाक्चातुर्य की विशेषताएँ लिखिए?

उत्तर

गोपियों के वाक्चातुर्य की विशेषताएँ इस प्रकार है –
(1) तानों द्वारा (उपालंभ द्वारा)  – गोपियाँ उद्धव को अपने तानों के द्वारा चुप करा देती हैं। उद्धव के पास उनका कोई जवाब नहीं होता। वे कृष्ण तक को उपालंभ दे डालती हैं। उदाहरण के लिए –
इक अति चतुर हुते पहिलैं ही, अब गुरु ग्रंथ पढ़ाए।
बढ़ी बुद्धि जानी जो उनकी, जोग-सँदेस पठाए।
(2) तर्क क्षमता  – गोपियों ने अपनी बात तर्क पूर्ण ढंग से कही है। वह स्थान-स्थान पर तर्क देकर उद्धव को निरुत्तर कर देती हैं। उदाहरण के लिए –
“सुनत जोग लागत है ऐसौ, ज्यौं करुई ककरी।”
सु तौ ब्याधि हमकौं लै आए, देखी सुनी न करी।
यह तौ ‘सूर’ तिनहि लै सौंपौ, जिनके मन चकरी।।
(3) व्यंग्यात्मकता  – गोपियों में व्यंग्य करने की अद्भुत क्षमता है। वह अपने व्यंग्य बाणों द्वारा उद्धव को घायल कर देती हैं। उनके द्वारा उद्धव को भाग्यवान बताना उसका उपहास उड़ाना था।
(4) तीखे प्रहारों द्वारा  – गोपियों ने तीखे प्रहारों द्वारा उद्धव को प्रताड़ना दी है।

12. संकलित पदों को ध्यान में रखते हुए सूर के भ्रमरगीत की मुख्य विशेषताएँ बताइये।

उत्तर

सूरदास मधुर तथा कोमल भावनाओं का मार्मिक चित्रण करने वाले महाकवि हैं। सूर के ‘भ्रमरगीत’ में अनुभूति और शिल्प दोनों का ही मणि-कांचन संयोग हुआ है। इसकी मुख्य विशेषताएँ इसप्रकार हैं –

भाव-पक्ष – ‘भ्रमरगीत’ एक भाव-प्रधान गीतिकाव्य है। इसमें उदात्त भावनाओं का मनोवैज्ञानिक चित्रण हुआ है। भ्रमरगीत में गोपियों ने भौंरें को माध्यम बनाकर ज्ञान पर भक्ति की श्रेष्ठता का प्रतिपादन किया है। अपनी वचन-वक्रता, सरलता, मार्मिकता, उपालंभ, व्यगात्म्कथा, तर्कशक्ति आदि के द्वारा उन्होंने उद्धव के ज्ञान योग को तुच्छ सिद्ध कर दिया है। ‘भ्रमरगीत’ में सूरदास ने विरह के समस्त भावों की स्वाभाविक एवं मार्मिक व्यंजना की हैं।

कला-पक्ष – ‘भ्रमरगीत’ की कला-पक्ष अत्यंत सशक्त, प्रभावशाली और रमणीय है।

भाषा-शैली – ‘भ्रमरगीत’ में शुद्ध साहित्यिक ब्रजभाषा का प्रयोग हुआ है।

अलंकार – सूरदास ने ‘भ्रमरगीत’ में अनुप्रास, उपमा, दृष्टांत, रूपक, व्यतिरेक, विभावना, अतिशयोक्ति आदि अनेक अलंकारों का सुन्दर प्रयोग किया है।

छंद-विधान – ‘भ्रमरगीत’ की रचना ‘पद’ छंद में हुई है। इसके पद स्वयं में स्वतंत्र भी हैं और परस्पर सम्बंधित भी हैं।

संगीतात्म्कथा – सूरदास कवि होने के साथ-साथ सुप्रसिद्ध गायक भी थे। यही कारण है कि ‘भ्रमरगीत’ में भी संगीतात्म्कथा का गुण सहज ही दृष्टिगत होता है।

रचना और अभिव्यक्ति 

14. उद्धव ज्ञानी थे, नीति की बातें जानते थे; गोपियों के पास ऐसी कौन-सी शक्ति थी जो उनके वाक्चातुर्य में मुखिरत हो उठी?

उत्तर 


गोपियों के पास श्री कृष्ण के प्रति सच्चे प्रेम तथा भक्ति की शक्ति थी जिस कारण उन्होंने उद्धव जैसे ज्ञानी तथा नीतिज्ञ को भी अपने वाक्चातुर्य से परास्त कर दिया।

15. गोपियों ने यह क्यों कहा कि हरि अब राजनीति पढ़ आए हैं? क्या आपको गोपियों के इस कथन का विस्तार समकालीन राजनीति में नज़र आता है, स्पष्ट कीजिए।

उत्तर

गोपियों ने ऐसा इसलिए कहा है क्योंकि श्री कृष्ण ने सीधी सरल बातें ना करके रहस्यातमक ढंग से उद्धव के माध्यम से अपनी बात गोपियों तक पहुचाई है।गोपियों का कथन कि हरि अब राजनीति पढ़ आए हैं आजकल की राजनीति में नजर आ रहा है। आज के नेता भी अपने बातों को घुमा फिरा कर कहते हैं जिस तरह कृष्ण ने उद्धव द्वारा कहना चाहा। वे सीधे-सीधे मुद्दे और काम को स्पष्ट नही करते बल्कि इतना घुमा देते हैं कि जनता समझ नही पाता। दूसरी तरफ यहाँ गोपियों ने राजनीति शब्द को व्यंग के रूप में कहा है। आज के समय में भी राजनीति शब्द का अर्थ व्यंग के रूप में